Wednesday, October 14, 2009

एक याद

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वो क्या था जिसके होने में हमने
अपनी सारी प्रतिबद्धताओं को
एक मुट्ठी भर दाएरे में
क़ैद कर दिया था

सब कुछ धुवां धुवां सा था
और था कुछ तो रीतापन
और उस सुनहरी पत्तियों
वाले पेड़ के नीचे खड़ा मैं
जब तुम टपकी थीं मेरी
गुदाज़ हथेलियों के परली तरफ़
एक ओस की बूँद में

वह खुला खुला सा बेगानापन
और थमी थमी सी वीरानी
दूर कहीं उन खंडहरों में जब
रूहों ने अंगडाइयां ली थीं
एक सिहरन का नन्हा सा कतरा
जिसमे तुम्हारे होने का कोई
दखल था
कहीं गहरे में उतर गया था
अपने संपूर्ण अस्तित्व के साथ
और मेरे हाथों में दो धवल मखमली
खरगोशों के नर्म नर्म एहसास भर
रह गए थे

उस धवल उजास चांदनी में
चौंक उठा था मैं
बज उठी थी पास ही कहीं
जलतरंग कोई
अरे यह क्या
यह तो एक नक्शा है भूगोल का
सारे पर्वतों, पठारों, नदियों
और समुद्रों के साथ
मगर उनके रंग
बहुत फीके थे
वे उदास थे, सोये थे

उस ओस का स्वाद किया था
महसूस मैंने अपनी जबान पर
और वापस हुए थे जब क़दम मेरे
तो हवाओं में खुनकी थी
और था तुम्हारा गीत

इन सोये पर्वतों , थमी सी नदियों
गहन समन्दरों और खामोश पठारों
का भीतर गहरे तक
इक संसार रहता है

और नहीं होता अर्थ कोई
हमारे होने होने का

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